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समकालीन कविताएँ >> मुझे बुद्ध नहीं बनना

मुझे बुद्ध नहीं बनना

सुदर्शन प्रियदर्शिनी

प्रकाशक : अयन प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2012
पृष्ठ :200
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 9426
आईएसबीएन :9788174085337

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प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘मुझे बुद्ध नहीं बनना’ एक स्वीकृति है, क्योंकि जब बचपन में मैंने बुद्ध के बारे में बहुत जाना, बहुत जिज्ञासा हुई, आगे तक जाकर जानने की... कि उन्होंने मृत्यु पर कैसे विजय पायी, कैसे उन्हें मोक्ष मिला... मुक्ति मिली ? फिर बड़ी हुई तो पढ़ा कि उन्होंने यशोधरा को त्यागा, बेटे को भी छोड़ा... यह कैसा न्याय ? यह कैसी भक्ति ? यह कैसा मोक्ष ?

बालमन ने बड़े होकर देखा - मृत्यु भी वहीं है, जरा भी वहीं, बुढ़ापा भी वहीं का वहीं। फिर कौन-सी विजय पाई गई, कौन-सा मोक्ष पाया गया ? मोक्ष क्या होता है और मुक्ति क्या... या मृत्यु से इसे अलगाया जा सकता है ? तभी यह मोहभंग भी हुआ, कि कुछ नहीं बदलता, कुछ भी नहीं रुकता, कुछ भी नहीं स्थिरता... बस सब एक तमाशे का हिस्सा...

( पुस्तक की भूमिका में से )

मेरे शब्द

आकांक्षाएं वह ध्रुव-तारा हैं जो आकाश पर टंगी रहती हैं... जिन्हें हम भरपूर पकड़ना चाहते हैं, पर पकड़ नहीं पाते... आकाश के तारे तोड़ना सब चाहते हैं, पर कौन तोड़ पाता है ? कोई नहीं। जब कभी कोई तारा टूट पाता है तो वह बस भाग्य के लाघव से... प्रयत्न के लाघव से नहीं। प्रयत्न की एकाध सीढ़ी केवल नामचीन सहयोग होता है। व्यक्ति दंभ भर सकता है अपने पुरुषार्थ का, व्यक्तित्व का या अनूठे साहस का... पर नहीं, अंततः सब प्रकृति या भाग्यजनित है। उम्र भर हम जूझते हैं अपने आप से और अपने अंदर दूर तक निहित किन्हीं भयों से... उन्हीं भयों से हम हो जाते हैं एक दिन रागी या वैरागी... भयभीत या विमोहित। इसी वितृष्णा-विमोह के आस-पास हम अपनी वेदनाओं की टोपियाँ बुनते हैं और अपने आप को निसृत करते रहते हैं। जितना लेते हैं, उतना ही वापिस भी देते हैं। कला की यही खूबी है और यही नियति भी, क्योंकि हमें अपने ध्रुवों की पहचान होती है... हम अपनी आकांक्षाओं की लड़ियाँ बुन-बुन कर कभी स्वयं को पहचानते हैं, कभी दुनिया को। यह सारा मायावी संसार इसी रचना के इर्द-गिर्द रचा गया है, जो भूल-भुलैया की तरह हमें उम्र भर भटकाता और झुठलाता रहता है। इस संग्रह में यदा-कदा इन्हीं भावनाओं की पुनरावृत्ति है जो हर रचनाकार अपने-अपने बलखे करता है और समय की पछाड़ें खाता है।

इस पुस्तक में मैंने कविताओं का वर्गीकरण करने का प्रयास किया है जो बेमानी भी हो सकता है। यह विभाजन करना भी आसान नहीं था फिर भी इसे करने के पीछे कहीं अपनी ही संतुष्टि छिपी थी, अपने आप को समझने की और इन कविताओं को कोई रंग देने की। मैं जानती हूँ, इसमें मुझे ज़्यादा सफलता नहीं मिली है क्योंकि मैं अपनी ही कविताओं को जगह-जगह ठीक परिवेश या नाम नहीं दे सकी। ऐसा लगा जैसे मुंडेर पर खड़े होकर मैं आवाज़ दे रही थी कि आओ ! तुम्हारी जगह यह है और वे बस जैसे जबरदस्ती मेरा कहा मानकर साथ जुड़ती रही हैं। इसलिए जहाँ आपको लगे कि यह ठीक नहीं है तो यही मानिए कि कहीं मैं ही चूक गई हूँ।

‘मुझे बुद्ध नहीं बनना’ एक स्वीकृति है, क्योंकि जब बचपन में मैंने बुद्ध के बारे में बहुत जाना, बहुत जिज्ञासा हुई, आगे तक जाकर जानने की... कि उन्होंने मृत्यु पर कैसे विजय पायी, कैसे उन्हें मोक्ष मिला... मुक्ति मिली ? फिर बड़ी हुई तो पढ़ा कि उन्होंने यशोधरा को त्यागा, बेटे को भी छोड़ा... यह कैसा न्याय ? यह कैसी भक्ति ? यह कैसा मोक्ष ?

बालमन ने बड़े होकर देखा-मृत्यु भी वहीं है, जरा भी वही, बुढ़ापा भी वहीं का वहीं। फिर कौन-सी विजय पाई गई, कौन-सा मोक्ष पाया गया ? मोक्ष क्या होता है और मुक्ति क्या... या मृत्यु से इसे अलगाया जा सकता है ? तभी यह मोहभंग भी हुआ, कि कुछ नहीं बदलता, कुछ भी नहीं रुकता, कुछ भी नहीं स्थिरता... बस सब एक तमाशे का हिस्सा हैं। हाँ, कहीं अपने वीतराग से, वैराग से कोई सत्य उत्पन्न हो जाता है तो वही मोक्ष है। मेरे निकट यह मोक्ष पाने की ललक एक पलायन है, एक दुर्बलता है, जूझ से ना जूझना है, जीवन को ठस्सा दिखाने की एक प्रक्रिया है। जीवन मिला है और तमाशे का हिस्सा बने है तो यही सही। यही जूझ शाश्वत रहनी चाहिए। यही परीक्षा है... यही सान है जिस पर चढ़ने से कतराना कायरता है। इसीलिए मुझे बुद्ध नहीं बनना...

अनहद नाद

एक धुंध भरी
उदास सी शाम
झुटपुटे में
तिरोहित होती
अपनी अपनी
विवशताओं के साथ
कहीं मेरे अन्दर
सृष्टि कर जाती है
एक अतीन्द्रिय
गहन मन प्राण का राग...
इस कोहरे से ढके
तन में -
अन्दर ही अन्दर
बजता है
सुरों की तरह
बैराग...
मन की आँखों में
एक अलमस्त सा
बुराँस...
अपनी पूरी लाली के साथ
खिल कर
संगीत के सातों स्वरों सा
छेड़ देता है
एक अहनद राग।

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